विपदा एक ऐसी आयी जिससे हर मानव त्रसत हुआ,
मजहब जो एक हमारा था
टुकड़ों में बिखरा एक मुकुर हुआ,
त्राहि त्राहि कर गिरती लाशों पे
सियासती गिद्धों का गुजर हुआ,
ना दवा मिली ना दुआ मिली
मरघट पर भी परिमोष हुआ,
धधक धधक के जलती लाशों से,
बस एक ही उद्द्घोष हुआ,
अश्तित्व हमारा कुछ ना रहा
जीवन कागज़ पर चिन्हित एक अंक हुआ,
प्रण लो अब तुम सब मिलकर
फिर न हो ऐसा जैसा अपना ये अंत हुआ,
वो भी तड़पे, वो भी तरसे वोटों की झोली को
ना वक़्त मिले ना शब्द मिले,
गिद्धों की उन टोली को,
पर भूल ना जाना उन सियारों को,
टीवी चैनल उन अखबारों को,
टीआरपी बनी उन चीत्कारों को ,
जलती लाशों में घुसती सियासती गलियारों को,
जो बेबस आहत लोगों के चर्चा पर,
नेताओं का दंगल मंच हुआ,
हाथ धरे वो भी बैठे जो फिरते थे चौकीदार बने,
खुश्क गले वाले भी तो खूब होशियार बने,
हर पप्पू हर दीदी यहाँ इन लाशों के भागिदार बने,
कुछ हम भी थे कुछ तुम भी थे,
जो बढ़ चढ़ हिस्सेदार बने,
कुछ वो भी थे,
जो मृत शैय्या पर लेटी लाशों क ठेकेदार बने,
कलप कलप के माओं ने छाती पीटी,
तो कही कोई अनाथ हुआ,
मंजर कुछ यूँ था इस दुनिया का,
घर सुना गलियां सुनी और रोशन हर शमशान हुआ,
कुछ वो भी है जो इस विपदा में माटी का लाल हुआ,
अब भी ना सम्हले तो झेलोगे,
सबके जीवन से खेलोगे,
जो साथ हमारे अब है हुआ,
वो हाल तुम्हारा कल होगा,
धधक धधक के जलती लाशों से,
यह अंतिम उद्द्घोष हुआ।
- गौरव चौबे
Brilliant.. well written and sarcastic too.. 😉